Tuesday 4 April 2017

ईवीएम सच या वीवीपीएटी?

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी 'ईवीएम' आखिर क्यों 'इलेक्शन विवाद मशीन' बनती जा रही है? अब केवल सफाई से बात बनती नहीं दिख रही, क्योंकि ईवीएम के मत सत्यापन पर्ची यानी वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) से जुड़ने के बाद जो सच्चाई सामने है, उससे निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है। ईवीएम से अगर छेड़छाड़ हुई, तो यह जनता की ताकत से खिलवाड़ है।
'प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्' वाले अंदाज में, रही-सही कसर, शुक्रवार 31 मार्च को तब पूरी हो गई, जब मप्र के भिंड में होने वाले उपचुनाव का जायजा लेने पहुंचीं प्रदेश की मुख्य निर्वाचन अधिकारी सलीना सिंह ने 'वीवीपीएटी' की परीक्षा के लिए मीडिया की मौजूदगी में डेमो के लिए दो अलग-अलग बटन दबाए और दोनों ही बार पर्चियां 'कमल' की निकलीं।
लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि गोवा में 4 फरवरी को हुए विधानसभा चुनाव में सभी जगह 'वीवीपीएटी' का उपयोग किया गया, पर वहां सब कुछ ठीक-ठाक रहा! ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर विपक्ष के सवालों का जवाब जरूरी है। अब प्रश्न है कि ईवीएम सच या वीवीपीएटी? जाहिर है, जो दिखता है वो सच है, लेकिन जो नहीं दिखा उसे कैसे सच मानें? सवाल आसानी से सुलझता नहीं दिख रहा, क्योंकि सवाल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावों की पारदर्शिता, निष्पक्षता और विश्वास का है। एक और दिलचस्प तथ्य यह भी कि वर्ष 2009 में 'ईवीएम' पर खुद भाजपा की ओर से दिग्गज नेता नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुब्रमण्यम स्वामी ने भी कई आरोप लगाए थे।
स्वामी सर्वोच्च अदालत भी गए, जहां 9 अक्टूबर 2013 को 'इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन' में 'वीवीपीएटी' लगाने और हर वोटर को रसीद जारी करना वाली मांग पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को व्यवस्था देते हुए कहा कि 'वीवीपीएटी' स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों के लिए अपरिहार्य है तथा भारत निर्वाचन आयोग को इस प्रणाली की सटीकता सुनिश्चित करने के लिए ईवीएम को 'वीवीपीएटी' से जोड़ने के निर्देश दिए।
दरअसल 'वीवीपीएटी' मतपत्र रहित मतदान प्रणाली का इस्तेमाल करते हुए, मतदाताओं को फीडबैक देने का तरीका है। इसका उद्देश्य इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की निष्पक्षता पुष्टि है। ये ऐसा प्रिंटर है जो 'ईवीएम' से जुड़ा होता है। वोट डालते ही एक पावती निकलती है जो मतदाता के देखते ही एक कन्टेनर में चली जाती है। पर्ची पर क्रम संख्या, नाम, उम्मीदवार का चुनाव चिन्ह दर्ज होता है। इससे वोट डालने की पुष्टि होती है और वोटर को चुनौती देने की अनुमति भी मिलती है।
2014 के आम चुनाव में 'ईवीएम' में पावती रसीद लागू करने की योजना चरणबद्ध तरीके से लागू करने के निर्देश दिए थे, ताकि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित हो। जिस पर आयोग ने कहा कि सभी 543 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रणाली को लागू करने के लिए 14 लाख 'वीवीपीएटी' मशीनों की जरूरत होगी, जिसके लिए समय बहुत कम है। ऐसे में 2019 के आम चुनावों के पहले इन्हें लगा पाना संभव नहीं होगा। इसके लिए 1500 करोड़ रुपयों की भी जरूरत पड़ेगी।
अभी 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद, चाहे उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव या मायावती हों, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, पंजाब को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हों, सभी ने 'ईवीएम' मशीन पर छेड़छाड़ के आरोप लगाए थे, जबकि अक्टूबर 2010 में सर्वदलीय बैठक में 'ईवीएम' इस्तेमाल के लिए व्यापक सहमति बनाते हुए कई राजनैतिक दलों ने 'वीवीपीएटी' का सुझाव दिया था, तभी से संभावना तलाशी जाने लगीं।
लेकिन जब इसके अनिवार्य इस्तेमाल की तैयारियां क्रमश: अमल में आने लगीं, तभी मप्र में यह सब हो गया। यह संयोग ही कहा जाएगा जो इसी 24 मार्च शुक्रवार को 'ईवीएम' से छेड़छाड़ मामले में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से 4 हफ्तों में जवाब मांगा ही था कि अगले ही शुक्रवार 31 मार्च को मप्र में कैमरों की मौजूदगी में 'वीवीपीएटी' की अलग कहानी कैद हो गई।
अब सवाल यह भी उठेगा, मशीन का आधिकारिक अंतिम उपयोग कहां हुआ था। जाहिर है, इसे कई कानूनी पहलुओं से जोड़ा भी जाएगा। इधर, चुनाव आयोग यह दावा करता रहा है कि 'ईवीएम' मशीनों से तब तक छेड़छाड़ नहीं की जा सकती, जब तक उनकी टेक्निकल, मैकेनिकल और सॉफ्टवेयर डिटेल गुप्त रहें, तो क्या इसकी गोपनीयता भंग हो चुकी है? सवाल बहुत हैं, जिन पर आयोग व राजनीतिक दलों के बीच लंबी माथापच्ची होगी। पर विडंबना यही है कि दिखने वाली मशीन से विवाद उठा है।
'ईवीएम' की पारदर्शिता पर सवाल उठाते हुए जहां जर्मनी ने इसे प्रतिबंधित किया था, वहीं इसी नक्शे कदम पर नीदरलैंड्स ने प्रतिबंधित किया। इटली ने भी नतीजों को आसानी से बदलने का आरोप लगाते हुए इसे चुनाव प्रक्रिया से ही हटा दिया, जबकि आयरलैंड ने संवैधानिक चुनावों के लिए 'खतरा' तक बता दिया। अमेरिका के कैलीफोर्निया सहित दूसरे राज्यों ने भी बिना पेपर ट्रेल के 'ईवीएम' के उपयोग से मना कर दिया। लेकिन हमारे देश में पेपर ट्रेल के डेमों में आई गड़बड़ी को लेकर सबकी निगाहें आयोग, सुप्रीम कोर्ट और राजनीतिक दलों पर है।
आखिर सवाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता की ताकत के साथ कथित 'खिलवाड़' का जो है, साथ ही यह देखना अहम होगा कि चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट में मत सत्यापन पर्ची की हकीकत पर अब क्या कहता है।
 डब्लूएचओ ने दुनिया भर में बीमारियों का बड़ा कारक पर्यावरण प्रदूषण को बताया है 

डब्लूएचओ के एक अनुमान के अनुसार, पर्यावरण को स्वस्थ बनाकर विश्व में हर साल 1.3 करोड़ मौतों को रोका जा सकता है। दुनिया भर में 25% बीमारियों के लिए प्रदूषित वातावरण जिम्मेदार है और प्रायः 85% प्रमुख बीमारियों को पर्यावरणीय कारकों से जोड़ा जा सकता है।
हाल ही में अख़बारों की खबरों में डब्ल्यूएचओ का हवाला देते हुए यह सुझाव दिया गया है कि बच्चों के विकास के लिए भारत का पर्यावरण अत्यंत खराब पर्यावरणों में से एक माना गया है।
निराशाजनक पर्यावरण परिदृश्य को देखते हुए पर्यावरण प्रदूषण: महिलाओं और बाल स्वास्थ्य पर प्रभाव समस्या पर मंथन के लिए लखनऊ में पूरे देश के विशेषज्ञ चिकित्सक, तंत्रिका विज्ञानी और स्वास्थ्य वैज्ञानिकों एकत्रित हुए हैं।
नैनो सामग्रियों के संश्लेषण व केरेक्टराइजेशन पर कार्यशाला का आयोजन
चिकित्सा विशेषज्ञों के अतिरिक्त इस कार्यक्रम में, आईआईटी के पर्यावरण वैज्ञानिक, पर्यावरणीय कानून के विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठनों के सदस्य भी प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि विश्व भर में वायु प्रदूषण प्रमुख हत्यारों में से एक है, जिससे अकेले भारत में ही 10 लाख से अधिक मौतें हुई हैं।
पर्यावरण वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं के लिए चिंता का दूसरा प्रमुख कारण मृदा और जल प्रदूषण है। भारत जैसे देश में, जहां विश्व की मानव आबादी का 18% और पशुधन आबादी का 15% विश्व के केवल 2.4% जमीनी क्षेत्र में ही है, मृदा प्रदूषण के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं और यह बड़ी चिंता का विषय है।
मृदा में अवांछित मानव निर्मित सामग्रियों की उपस्थिति, जिनमे कीटनाशक, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन, पॉलीएरोमेटिक हाइड्रोकार्बन और भारी धातुएं मुख्य हैं, मानव स्वास्थ्य और अन्य जीवन रूपों के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हैं।
आवश्यक है कि पर्यावरण में विभिन्न संदूषकों और नए संदूषकों की मात्रा को अधिकतम स्वीकार्य स्तरों के भीतर ही रखा जाए, नियामक मानकों को मजबूत किया जाए और उपचारात्मक कार्यों के लिए रणनीतियां बनाई जाएँ।
यह व्यापक रूप से ज्ञात है कि विश्व में 15 करोड़ से अधिक लोग पीने के पानी के माध्यम से आर्सेनिक से प्रभावित हो रहे हैं। 7 राज्यों के 5 करोड़ भारतीय पीने के पानी के माध्यम से आर्सेनिक द्वारा प्रभावित हो रहे हैं।
हालांकि कोई प्रत्यक्ष प्रमाण स्थापित नहीं किया जा सकता लेकिन भारी धातुओं और कीटनाशकों के सम्मिलित जोखिम प्रतिकूल प्रजनन और बाल स्वास्थ्य परिणामों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण सामान्य स्वास्थ्य रोगों के साथ-साथ जीनोटॉक्सिक प्रभाव की अभिव्यक्ति भी दर्ज की गई है। बच्चों में न्यूरोडेवेलपमेंटल विकलांगता की बढ़ती घटनाओं का कारण आर्सेनिक और पाइरिथ्रॉइड के बढ़ते जोखिम से जोड़ा गया है।
हालांकि आनुवांशिक, पर्यावरणीय और पोषण संबंधी कारकों का इन रसायनों की विषाक्तता में काफी योगदान होता है, इनका प्रभाव और तीव्रता विभिन्न कारकों जैसे उम्र, लिंग और एक्स्पोसर के मार्ग पर निर्भर करती है।
इन सभी समस्याओं की पहचान करने, उन्हें उचित तरीके से निपटाने और उन्हें सुलझाने की उपयुक्त रणनीति तैयार करने के लिए एक पैनल चर्चा भी आयोजित की गई।
यह सुझाव दिया गया कि इस क्षेत्र में आज उपलब्ध नवीनतम माइक्रो और नैनो टेक्नोलॉजी टूल्स का इस्तेमाल करते हुए बड़े पैमाने पर बहु केंद्रित अध्ययन करना अति आवश्यक है।
आनुवांशिक अध्ययन को बहु केंद्रित महामारी विज्ञान अध्ययन को साथ रख कर करने चाहिए और और सूक्ष्म विज्ञान और प्रभावित आबादी के बीच एक संबंध स्थापित किया जाना चाहिए। तभी आज के रसायनों के जहरीली स्वभाव के बारे में संदेह समाप्त होंगे और निश्चित प्रमाण मिल पाएगा।
इसके पश्चात ही कानून इस दिशा में सुधारात्मक और निवारक कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगा और हमारे बच्चों के लिए देश एक बेहतर स्थान होगा।


Wednesday 22 March 2017

राम मंदिर पर क्यों आसान नहीं है समझौता?

रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद विवाद को आपसी सहमति से अदालत के बाहर सुलझाने की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के पीछे कई वजहें हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है और संवेदनशील मसलों का हल आपसी बातचीत से हो. लेकिन ये इतना आसान नहीं है.
हिन्दू-मुसलमानों के तर्क
पहली बात है कि ये किसी का व्यक्तिगत मुकदमा नहीं है. इसमें मुसलमानों की तरफ से शिया और सुन्नी सब शामिल हैं और हिन्दुओं की तरफ से भी सब संप्रदाय शामिल हैं. तो इसमें कोई एक व्यक्ति या एक संस्था समझौता नहीं कर सकती.
दूसरी बात ये कि हिन्दुओं की तरफ़ से तर्क ये है कि रामजन्म भूमि को देवत्व प्राप्त है, वहां राम मंदिर हो न हो मूर्ती हो न हो वो जगह ही पूज्य है.
वो जगह हट नहीं सकती.
हालांकि कुछ लोग ये तर्क देते हैं कि कुछ मुस्लिम देशों में निर्माण कार्य के लिए मस्जिदें हटाई गईं हैं और दूसर जगह ले जाई गई हैं.
वहीं हिन्दुस्तान के मुसलमानों का कहना है कि मस्जिद जहां एक बार बन गई तो वो क़यामत तक रहेगी, वो अल्लाह की संपत्ति है, वो किसी को दे नहीं सकते . इसलिए मुस्लिम समुदाय की तरफ से ये कहा जा रहा है कि अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला कर दे तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं हैं.

पहले भी हो चुकी हैं समझौते की कोशिशें
इस मामले में समझौते की कई मुश्किलें हैं क्योंकि पहले भी इसकी कोशिशें हुई हैं, दो बार प्रधानमंत्री स्तर पर प्रयास हुए.
इसके अलावा विश्व हिन्दू परिषद और अली मियां जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के रहनुमा थे उनके बीच में कोशिश हुई हैं. लेकिन इस मसले में बीच का रास्ते नहीं निकल पाया तो समझौता नहीं हुआ.

अदालत क्यों नहीं कर रही फ़ैसला
अब सवाल ये है कि अदालत इस मसले का फैसला क्यों नहीं कर पा रही है?
दरअसल अदालत के लिए फैसले में सबसे बड़ी दिक्कत है मामले की सुनवाई करना. सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या कम है. ये संभव नहीं है हाई कोर्ट की तरह तीन जजों की एक बेंच सुप्रीम कोर्ट में भी मामले की सुनवाई करे.
हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान कई टन सबूत और काग़ज़ात पेश हुए. कोई हिन्दी में है, कोई उर्दू में है कोई फ़ारसी में है. इन काग़जों को सुप्रीम कोर्ट में पेश करने के लिए ज़रूरी है कि इनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया जाए. अभी तक सारे काग़ज़ात ही सुप्रीम कोर्ट में पेश नहीं हो पाए हैं और सबका अनुवाद का काम पूरा नहीं हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में दूसरी समस्या ये भी है कि मुकदमें के पक्षकार बहुत हैं. ऐसे में सुनवाई में कई हफ़्तों का समय लगेगा.
अगर रोज़ाना सुनवाई करें तो कई बार जज रिटायर हो जाते हैं और नए जज आ जाते हैं. तो सुनवाई पूरी नहीं हो पाएगी. इसीलिए चीफ जस्टिस ने कोर्ट ने बाहर समझौता करने की सलाह दी है. ये भी हो सकता है कि चीफ जस्टिस के दिमाग़ में ये बात रही हो कि अगर कोर्ट कोई फ़ैसला कर भी दे तो समाज शायद उसे आसानी से स्वीकार ना करे.
राम जन्मभूमि का मामला पहले एक स्थानीय विवाद था और स्थानीय अदालत में मुक़दमा चल रहा था. लेकिन जब विश्व हिन्दू परिषद इसमें कूदी तो उसके बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ और ये विश्व हिन्दू परिषद , भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक हिन्दू राष्ट्र के सपने का हिस्सा हो गया.
ऐसे में मुस्लमानों को ये भी लगता है कि ये एक मस्जिद का मसला नहीं है, अगर हम सरेंडर कर दें तो कहीं ऐसा ना हो कि इसके आड़ में उनके धर्म और संस्कृति को ख़तरा हो जाए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)